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रविवार, 10 जनवरी 2021
ग्राम सिवनी का प्राचीन पंचमुखी शिव मंदिर
सोमवार, 12 अक्तूबर 2020
छिंदवाड़ा के कवि राकेश शर्मा की कविताएं
![]() |
कवि राकेश शर्मा |
मेरी सोना,वो बनेगी।
हाय!स्वांग क्या रच डाला?
निहित प्रतिभा उनकी न जान,
रात-दिन कर उन्हें परेशान,
हाय! अनर्थ क्या कर डाला?
इसकी देख, उसकी सुन,
ख़्वाब अधूरा रच डाला।
निज प्रतिभा को न जान,
जीवन ज्योत बुझा डाला।
हाय! आडंबर क्या रच डाला?
पांव पूत के पालने में,
तुम्हें नजर न क्यूं आए?
धिक्कार तुम्हें है,
फिर क्या तुम?
मात-पिता उनके कहलाए।।
मत बैठाओ, डरा धमकाकर,
सिखाने उन्हें तुम ककहरा।
फिर क्यों न जाना,
उल्टे सीधे अंकों से,
मन रहता सदा,उनका क्यूं डरा?
क्या वे चाहते, या न चाहते,
अरे! पहले तो पढ़ो उन्हें।
बालरुचि रौंद कुचलकर,
ऐसा कभी न गढ़ो उन्हें।।
जरा प्यार से, जरा लाड़ से,
जब तुम उन्हें पढ़ाओगे।
निश्चित जानो,बात मेरी मानो,
किला फतह कर जाओगे।।
क्यों, न जाना बात जरा सी,
पढ़ाई से मुंह क्यूं चुराते हैं?
किताबें, बस्ता, पेन पेंसिलें,
बोझ उन्हें क्यूं लगते हैं?
जिस दिन वे तैयार स्वयं हो,
स्कूल को दौड़ लगाएंगे,
तब ये जानो,बात मेरी मानो,
मंजिल स्वयं पा जाएंगे।।
बचपन में उनकी लाचारी,
मार तुम्हारी तो सह जाएगी।
मगर ये चिंगारी,जब बनेगी ज्वाला,
भस्म तुम्हें कर जाएगी।।
याद तुम्हें जरा अगर हो,
भेजे में यदि जरा अकल हो,
बतलाओ ये मुझको तो जरा,
नन्हें नन्हें हाथों ने जब,
अनगढ़ सा चित्र बनाया था।
मैं क्या बनना चाहता हूं,
तुम्हें इशारों में बतलाया था।
कुछ याद है न, मिट्टी से सने,
नन्हें हाथों ने मूरत एक बनाई थी।
तब क्यों न जाना?
ये छिपी कला ही,
जीवन उसका बनाएगी।।
कुछ याद है ना?
नन्ही मुन्नी अंगुलियों ने जब,
मेज को तबला बनाया था।
ता-धिन-निन-ना, के अपुट स्वर ने,
मन बरबस हर्षाया था।।
तोतली उसकी जुबां ने जब,
गीत प्यार का गाया था।
तब तुमने उसे उठा गोद में,
चूमा खूब सराहा था।।
फिर क्यों न समझा,
क्यों न जाना?
मां शारदे का वरद हस्त,
उसे था विरासत में मिला।
संगीत की शिक्षा से उसे विरक्त कर,
अन्याय प्रतिभा से कर डाला।
हाय! अनर्थ क्या कर डाला।।
अंतरतम व्याप्त कला को,
हाय! तुम क्यों पहचान न सके?
अपनी इच्छा जबर थोपकर,
जीवन उसका बचा न सके।।
निज प्रतिभा से वंचित अगर कर,
जिद पे बुनियाद बनाओगे,
निश्चित ये जानो, बात मेरी मानो,
इमारत बुलंद न कर पाओगे।।
मासूमियत को क्यों उनकी,
अपनी रजा़ बनाते हो,
अरे! वे मनेंद्र हैं।स्वयंभू राजा।
दास उन्हें क्यों बनाते हो?
बनाओ डॉक्टर या कलेक्टर,
बैंकर बनाओ या इंजीनियर।
मैंने तुम्हें कब रोका है?
तुम्हारी इन्हीं जिद से ही,
जान को उनकी धोखा है।।
ख़्वाब तुम देखो,
ख़्वाब, देखने में बुराई तो नहीं।
मगर,इन ख्वाबों के चक्कर में,
जिंदगी, उनकी तुम ले लो न कहीं।।
मस्त बहारों की महफ़िल में,
गीत, उन्हें तुम गाने दो।
मधुर गुंजन करते भौरों को,
जीवन का रस पीने दो।।
ईश्वर ने अनमोल ये रत्न,
बड़े भाग्य से सौंपा है।
फिर क्यों मधुवन की धरा में,
कंटक तुमने रोपा है।।
पहले ये जानो,बात मेरी मानो,
छिपा है उनमें रत्न कहां?
फिर जौहरी बन उसे निखारो,
जानेगा उनका मोल ये ज़हां।।
मैं ये नहीं कहता, हार मानकर,
हो जाओ तुम यूं हीं परेशां।
संभलो,ख्वाहिशों की इस इतेहां में,
कहीं बाकी ही न रहें उनके अब निशां।।
जिस दिन हक़ीक़त से रू-ब- रू हो,
दिल से हम यह स्वीकारेंगे,
सूक्ष्म दृष्टि से उन्हें समझकर,
प्रतिभानुरूप,हम ढालेंगे।
उस दिन दुनिया के किसी कोने से,
ये मनहूस खबर न आएगी।
उस दिन किसी मायूस मन की,
लाश न घर कभी आएगी।।
*************************
स्वरचित- राकेश शर्मा,
छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश)
दिनांक ०९/१०/२०२०
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कभी करूं गुस्सा,
![]() |
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कभी दो थप्पड़,
फिर लाड़ दुलार।
जबरन घर में बिठा बिठा,
पढ़ने को उकसाती हूं।
मां,
हूं मैं कम पढ़ी लिखी,
कल से बहुत घबराती हूं।।
चिंता तो मेरी,बस इतनी है,
पढ़ता, ये बिलकुल भी नहीं है।
दिन भर देखो,खेल ही खेल
करता नहीं,अच्छों से मेल।।
पढ़ने-लिखने वाले बच्चे,
रास इसे न आते हैं।
चालू, चकरम, घुमंतू, फक्कड़,
ही दोस्त इसे क्यूं भाते हैं।।
बचपन से ही इसके लक्षण,
मन मेरा लरजाते हैं।
शुभ- अशुभ के ये चिंतन,
सारी रात जगाते हैं।।
लगता नहीं मुझे कि अब,
कुछ भी ये पढ़ पाएगा।
रास्ते में चलाएगा रिक्शा,
या मजदूर बन जाएगा।।
खाने पीने, पढ़ने लिखने का,
रहता इसे क्यूं ध्यान नहीं।
बस आवारागर्दी ही क्यों?
अब इसकी पहचान बनी।।
सुबह से उठ, पुस्तक न खोल,
बस,खेलने भाग जाता है।
धूल धूसरित,हो सना बना,
फिर वापस घर को आता है।
अनजानी शंका ही बस,
हरदम मुझे सताती है।
ऐसा उसे बिगड़ा यूं देख,
नींद मुझे न आती है।।
अब छुटकी भी देख उसे,
पढ़ने से जी चुराती है।
पढ़ने के लिए गर बोलूं तो,
आंखें लाल दिखाती है।।
बाप तो इसका न जाने कब,
नशे का यूं शिकार हुआ।
छोड़ मुझे इन बच्चों के संग,
दुनिया से बेजार हुआ।।
दूसरों के बच्चों को देख,
मन,मसोस रह जाती हूं।
काश मेरे भी ऐसे होते,
ख्याल ये कर,
फूली न समाती हूं।।
झाड़ू पोंछा, बर्तन धोकर,
रोटी मैं दो, ये कमाती हूं।
निज मनसा,दमित दलित कर,
पैसे मैं दो, ये बचाती हूं।।
मकसद तो मेरे जीवन का,
होगा बस, अब एक ही।
बच्चे पढ़ लिख संभल खुद जाएं,
इसके बिना, कुछ चाहूं न कभी।।
गरीब हूं, बेबस ही सही,
मगर, जिगर न हारुंगी।
तोड़ के सारी बंदिशों को,
इतिहास नया रच डालूंगी।।
बच्चों को अब पढ़ा लिखा,
काबिल मैं इतना बनाऊंगी।
चिर कलंक इस मुफलिसी से,
दूर उन्हेें ले जाऊंगी।।
हां, मुझमें हिम्मत है,
ताकत है, वफादारी है।
किस्मत अपने हाथों से,
गढ़ने की खुद्दारी है।।
कल बच्चे जब याद करेंगे,
मेरी इन सदाओं का,
नतमस्तक हो याद करेंगे,
एक मां की नेक वफाओं का।।
***********************
स्वरचित- राकेश शर्मा,
छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश)
दिनांक ०६/१०/२०२०
---------------------------------------------------------
.**"महामारी की लाचारी**
""""""""""""""""""""""""""""""""""
कुछ के धंधे, बंद पड़े हैं,
कुछ के भी, अभी मंद पड़े हैं,
कुछ की तो दीवाली है।
कुछ के घर है,फांकामस्ती,
ये दुनिया अजब निराली है।।
आदमी के गुरूर का,
देखो ये क्या हाल हुआ?
कल तक था, जो बड़ा छबीला,
जीना आज बेहाल हुआ।।
कुदरत को यों, समझ के बौना,
कद अपना खूब बढ़ाया था।
आज पड़े जब जान के लाले,
खुद पे रोना आया था।।
भौतिक सुखों की वेदी पर,
मासूम धरा की चढ़ी बलि।
जंगल का नित गला कटा,
हवा भी गरल में आ घुली।।
वसुधा को जो दला था तूने,
कायनात को छला था तूने।
मस्त बहारों को मैला कर,
अपनी मौजां जो किया था तूने,
उसी का ये प्रतिकार है।
तेरे वजूद को आज,
तुझ से ही इनकार है।।
चमचमाती कारें हों या,
मदमदाती मधुशाला।
धड़धड़ाते कारखाने हों या,
बच्चों से चहकती पाठशाला।
मौत के डर ने, ही देखो तो,
जड़ दिया सब पर ताला।।
वक़्त का सितम ये देखो,
जिंदगी यूं बेजार हुई,
मौत की बदनसीबी का आलम,
चार कंधों को लाचार हुई।।
चमकती-दमकती इस दुनिया का ,
देखो क्या अंजाम हुआ?
कभी न थमने वाली दुनिया का,
इंजन अब यूं जाम हुआ।।
कभी इठलाती, कभी बलखाती,
जिंदगी अब ऐसी बिलखती है।
कुदरत ऐसी रूठी यारां,
खुदा तक की न चलती है।।
खुदा भी देखो,कुदरत के दर,
बेबस और लाचार हुआ।
बंद पड़ गए मंदिर मस्ज़िद,
ऐसा पहली बार हुआ।।
पिंजरे में अब बंद है मानव,
पंछी सब आज़ाद हुए।
रूप निराला दिखा धरा का,
सूने वन, आबाद हुए।।
कुछ सीख जाओ,
कुछ सिखा जाओ।
वक़्त है बेरहम,
संभल जाओ,संभल जाओ।।
गर, अब न संभले तो,
ख़ाक में मिल जाओगे।
सरपरस्ती में तुम्हारी जो,
खिलखिलाती है जिंदगानियां,
बेबस, उन्हें क्या छोड़ जाओगे?
**************************
स्वरचित- राकेश शर्मा
छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश)
दिनांक-०५/१०/२०२०
---------------------------------------------------------
***हां मैं मजदूर हूं....**
*************"***"**"बोझिल मन, बोझिल तन,
बेदम कदम, कातर नयन,
सांसें भारी, घायल है दिल,
अनजानी मंज़िल,
वक्त है कातिल।।
हां! मैं मजदूर हूं।
श्रम शक्ति की इकाई,
वापस अब घर जाता हूं।।
वक़्त का मारा, लाचार बेसहारा,
अपना सब कुछ छोड़े जाता हूं,
गैरों से हैं न शिकवे कोई,
अपनों से हारा जाता हूं।
अपनों से बेगाना हुआ,
वापिस अब घर जाता हूं।।
आंखों में लिए सपने हसीं,
उमंगों के रथ पे सवार।
उम्मीदों की थी सरजमीं,
हसरतें थीं बेशुमार।।
भुजाएं फड़कतीं, देह अकड़ती,
रोम रोम में शक्ति अपार।
ऊंची इमारतें, जागती रातें,
शहर का था पहला दीदार।।
मन में थे ये अरमां जवां,
कुछ ऐसा कर जाऊंगा।
बूढ़े मात-पिता को संग,
अब यहां ले आऊंगा।।
दुख,दर्द, बेचैनी, मायूसी,
अब काफूर हो जाएंगे।
अतीत के वे शापित दिन,
अब हवा हो जाएंगे।।
बच्चे मेरे पढ़ लिखकर,
नाम मेरा कर जाएंगे।
झूमा झटकी, हंसी ठिठोली,
रंग जीवन के बन जाएंगे।।
मैंने तो बना भी लिया था,
एक छोटा सा आशियां यहां।
टूटे फूटे दो कमरों में,
आबाद थी दुनियां यहां।।
गांव की सौंधी मिट्टी अब,
बीते वक्त की बात हुई।
शहर का मैं आदी हुआ,
दुनिया मेरी आबाद हुई।।
दो चार पैसे बचाकर,
सपनो को यूं परवान दिया।
गांव की हिकारत नज़रों को,
मुंहतोड़ सा जवाब दिया।।
क्या पता, क्या थी खबर?
वक़्त सितमगर,
चाल ऐसी चल जाएगा।
अपनों से बेगाना होकर,
सिर नंगा हो जाएगा।।
मालिक!मालिक! बुलाता जिन्हें,
थकती थी न मेरी जुबां।
मेरे बिना था न मुक्कमल,
शोहरत का ये कारवां।।
आज उन्हीं की बेदिली ने,
उजाड़ दिया मेरा आशियां।।
मेरी वफाओं का, मुझे ये सिला दिया है,
दो वक़्त की रोटी को मय्यसर,
आज मुझे कर दिया है।।
सर पे नैराश्य की गठरी लिए,
दुधमुंहे बच्चों को साथ लिए,
कल की चिंता में अधमरा जाता हूं।।
हां ! मैं मजदूर हूं,
श्रमशक्ति की इकाई,
वापस अब घर जाता हूं।।
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स्वरचित- राकेश शर्मा, छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश) दिनांक-०४/१०/२०२०
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